मैं बिहार मे पैदा हुआ दिल्ली मे प्रगतिशील पत्रकार कहलाता हूँ . सर नेम को झटक कर जाति से अपने परहेज की मात्रा मापी जाने लायक बना लिया है . शुरू से ही दुबे ,चौबे, झा ,मिश्रा ,तिवारी ,त्रिपाठी , सिंह , शर्मा , चौहान जैसे सरनेम नेम से विलीन हो गुप्त आचरण मे समाहित हो , चाहता रहा .और मिलीमीटर से भी कोई मेरे ब्रह्मनत्व को माप न पाये इसके लिए मैं सरनेम पासवान, राम , बाल्मीकि, बैठा , प्रसाद ,मंडल, महतो आदि सरनेम नेम से न जुदा हो , इसका हिमायती रहा हूँ. खोज-खोजकर इनको दोस्त बनाता हूँ सो स्वाभाविक क्रिया के तहत साथ उठना बैठना खाना पीना सब चलता रहता है . इनकी आवाज़ उठाते रहने से ताली , खाली नही जाती.और अपनी धर्मनिरपेक्षता का क्या कहना ? हम तो अपने पत्रकारिता धर्म को भी ठेंगा दिखाते रहते हैं , क्या मजाल की इंसानियत का धर्म मेरे से नज़र मिलाये . ब्राह्मण और हिंदू होने के वावजूद मैंने जनेऊ से लेकर 'शिखा 'तक उखाड़ लेने का पक्षधर रहा . शंकर महादेव को "शंकर महादेवेन " से ज्यादा भाव कभी न दिया . अयोध्या के बानर सेना वाले सीताराम को ४ विदेशी कुत्ता पालनहार श्री सीताराम येचुरी से अधिक महत्व न देने का प्रमाण पत्र मेरी जेब मे ही रहता है . हिंदू पूजा पद्धति के ख़िलाफ़ समूचा देश मे, पर बंगाल के ज्योति बाबू की काली पूजा को मुस्लिम के नवाज के समकक्ष ही रखा .
मेरे टाइप के लोगों को "मोदी" मे "मद" और "बुद्धदेव" मे "मध"[शहद ] नज़र आता है .प्रगतिशीलता के नए मापदंड [-अपने "शील" को प्रगति देकर यानी चलायमान रख कर विरोधियों की प्रगति को येन केन प्रकारेण "सील" करना ] पर बिल्कुल खरा उतरने को आतुर एक पत्रकार ही तो हूँ . " रेड लेबल " के पत्रकार कहलाने के लिए क्या-क्या न किया कथित उच्चे कुल मे जन्म लेकर , अपने कुल सहित समस्त उच्चे कुल को गालियों और गोलियों से रौदता रहा रौदवाता रहा .इस तरह सामाजिक न्याय दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया .पत्रकार की कोई जाति नही होती ,धर्म नही होता उपर्युक्त बातों से साफ हो गया होगा . अब पत्रकारिता की कोई सीमा नही होती इसको भी साफ कर ही दूँ .मैं बिहारी बिहार से चला .मात्र १८-२० घंटे की यात्रा ने बिहार को भुला देने मे मेरी मदद की . दिल्ली से दूर तक देख पाने की शक्ति मिली . नक्शे पर समूचा हिंदुस्तान क्या चीन, रूस देखता रहा .चीनी रूसी लेखक के अलावा अपने टाईप के धर्मनिरपेक्ष के धर्म गुरुओं का किताब चाटते रहे .अध्ययनशील रहने की बीमारी से ग्रषित हो जाने के कारण आंखों की नजदीकी नजर जाती रही दुरी का विस्तार मेरी सीमा का विस्तार करता गया . बंगाल की करतूत हमे तबतक नही दिखाई देती जबतक की वहाँ कांग्रेस या भाजपा न आए . मोदी को देख सकता हूँ पर उसकी अच्छाई धुधला दिखता है , और उसकी बुराई थोड़ा सा भी दिखे तो परिमार्जन विद्या से पहाड़ मे परिणत कर देने मे ज्यादा टाइम नही लगाता . और बिहार का क्या जहाँ सांप्रदायिक ताकत से मिलकर सरकार चलाने वाला नीतिश को पहले सड़कछाप मुख्यमंत्री बता दिया गया है . बाढ़, सूखा ,अतिवृष्टि का दंश झेलता चार बीघे जमीन वाले को माओवादी के धमकी भरे पत्र को प्रेम-पत्र से ज्यादा कुछ मैं नही समझता . जातिवाद का जहर कम न पड़े इसका प्रयास हमे जारी रखना है अपनी खोजी पत्रकारिता के तहत .क्योंकि इधर मैंने देखा है उच्च जाति ने छुआछूत को छू भी नही रहा . पढे लिखे साफ सुथरे दलित ,अर्धदलित के साथ आम सवर्ण भी घुलनशील होता जा रहा है , ठीक मेरी तरह . ये सर्वाधिक चिंता का विषय है मेरी और मेरी विचारधाराओं के लिये . ख़ुद को मैंने कई बार मार कर खबरों का खुदा बनने की कोशिश की .गिनिए कितनी मौत मरा हूँ ,कितनी बार अपने आपको मिटाया हूँ . अपने सरनेम को मिटाया , अपनी जाति मिटाई , अपना हिंदू धर्म मिटाया , अपना प्रान्तवाद मिटाया . फ़िर ये कुछ सामंतवादी लोग मेरे धर्म और निरपेक्षता मे फासला कायम करना चाहते हैं .कितनी ग़लत बात है ? है कि नही ? अरे साहेब इसीलिय सलमा आगा के दुःख के बराबर मेरा भी दुःख है ."ख़ुद को भी हमने मिटा डाला मगर , फांसले जो दरमिया से रह गए ." खैर कम्बल ओढ़ के हम घी पी रहें है या पानी ? ये हमारे साथी को पता चलेगा तभिये न दुरी बढायेगा .अभिये से बुरबक की तरह तनावोचित बिहेवियर सर्वथा अनुचित है .
मेरे टाइप के लोगों को "मोदी" मे "मद" और "बुद्धदेव" मे "मध"[शहद ] नज़र आता है .प्रगतिशीलता के नए मापदंड [-अपने "शील" को प्रगति देकर यानी चलायमान रख कर विरोधियों की प्रगति को येन केन प्रकारेण "सील" करना ] पर बिल्कुल खरा उतरने को आतुर एक पत्रकार ही तो हूँ . " रेड लेबल " के पत्रकार कहलाने के लिए क्या-क्या न किया कथित उच्चे कुल मे जन्म लेकर , अपने कुल सहित समस्त उच्चे कुल को गालियों और गोलियों से रौदता रहा रौदवाता रहा .इस तरह सामाजिक न्याय दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया .पत्रकार की कोई जाति नही होती ,धर्म नही होता उपर्युक्त बातों से साफ हो गया होगा . अब पत्रकारिता की कोई सीमा नही होती इसको भी साफ कर ही दूँ .मैं बिहारी बिहार से चला .मात्र १८-२० घंटे की यात्रा ने बिहार को भुला देने मे मेरी मदद की . दिल्ली से दूर तक देख पाने की शक्ति मिली . नक्शे पर समूचा हिंदुस्तान क्या चीन, रूस देखता रहा .चीनी रूसी लेखक के अलावा अपने टाईप के धर्मनिरपेक्ष के धर्म गुरुओं का किताब चाटते रहे .अध्ययनशील रहने की बीमारी से ग्रषित हो जाने के कारण आंखों की नजदीकी नजर जाती रही दुरी का विस्तार मेरी सीमा का विस्तार करता गया . बंगाल की करतूत हमे तबतक नही दिखाई देती जबतक की वहाँ कांग्रेस या भाजपा न आए . मोदी को देख सकता हूँ पर उसकी अच्छाई धुधला दिखता है , और उसकी बुराई थोड़ा सा भी दिखे तो परिमार्जन विद्या से पहाड़ मे परिणत कर देने मे ज्यादा टाइम नही लगाता . और बिहार का क्या जहाँ सांप्रदायिक ताकत से मिलकर सरकार चलाने वाला नीतिश को पहले सड़कछाप मुख्यमंत्री बता दिया गया है . बाढ़, सूखा ,अतिवृष्टि का दंश झेलता चार बीघे जमीन वाले को माओवादी के धमकी भरे पत्र को प्रेम-पत्र से ज्यादा कुछ मैं नही समझता . जातिवाद का जहर कम न पड़े इसका प्रयास हमे जारी रखना है अपनी खोजी पत्रकारिता के तहत .क्योंकि इधर मैंने देखा है उच्च जाति ने छुआछूत को छू भी नही रहा . पढे लिखे साफ सुथरे दलित ,अर्धदलित के साथ आम सवर्ण भी घुलनशील होता जा रहा है , ठीक मेरी तरह . ये सर्वाधिक चिंता का विषय है मेरी और मेरी विचारधाराओं के लिये . ख़ुद को मैंने कई बार मार कर खबरों का खुदा बनने की कोशिश की .गिनिए कितनी मौत मरा हूँ ,कितनी बार अपने आपको मिटाया हूँ . अपने सरनेम को मिटाया , अपनी जाति मिटाई , अपना हिंदू धर्म मिटाया , अपना प्रान्तवाद मिटाया . फ़िर ये कुछ सामंतवादी लोग मेरे धर्म और निरपेक्षता मे फासला कायम करना चाहते हैं .कितनी ग़लत बात है ? है कि नही ? अरे साहेब इसीलिय सलमा आगा के दुःख के बराबर मेरा भी दुःख है ."ख़ुद को भी हमने मिटा डाला मगर , फांसले जो दरमिया से रह गए ." खैर कम्बल ओढ़ के हम घी पी रहें है या पानी ? ये हमारे साथी को पता चलेगा तभिये न दुरी बढायेगा .अभिये से बुरबक की तरह तनावोचित बिहेवियर सर्वथा अनुचित है .