शनिवार, 29 मार्च 2008

हां रे बेटा ऐसे ही पढ़ना

कर्ज लेकर किराने की बड़ी दुकान चला रहे हीरालाल की एकलौती संतान करण पढ़ाई के नाम फान्केबाजी करना भाता था. उसकी माँ अनपढ़ बाप सातवी पास .हर बाप की तरह हीरालाल अपने लाल को जवाहर लाल बनाने को सोच रखा था . इस दिशा मे दो टिउशन लगा कर प्रयास शुरू कर दिया गया था. गिरते पड़ते करण मैट्रिक तक पहुच चुका था . सोलह साल का करण बाप की दुकान से चुराए गए पैसे से तमाम बुरी आदत का स्वामी बन चुका था .शिक्षक, दोस्त सब उसके दुकान से नियमित मारे गए सुपारी, इलायची, टॉफी , सिगरेट मुफ्त उपभोक्ता थे .करण हर दिन को शिक्षक दिवस और फ्रेंड्स शिप डे की तरह मनाकर पूरे स्कूल मे लोकप्रिये था. मुफ्त मे उपहार के बदले झूठी प्रसंशा से तृप्त करण मैट्रिक मे दो साल असफल रहा . झूठी प्रशंसा अपना पाँव फैलाकर उसके बाप तक यदा-कदा पहुचती रही ,पर परिणाम से नाखुश हीरालाल हिला हुआ था .जब तब अपनी पत्नी को भभकी देता था कि "तेरा बेटा पढ़ता तो है नही ,किसी दिन उल्टा लटका देंगे , मार-मार कर गदहा बना देंगे , चौराहे पर खड़ा कर दस जाति का थूक फेकवायेंगे . कभी कहता सौ जूते मारेंगे और मारेंगे दस और गिनेगे एक " . दह्सत मे हीरालाल की पत्नी माँ होने के नाते आंखों मे आंसू भरकर भरोसा जता देती थी कि पढेगा और पढेगा .आप चिंता न करे मैं रोज उसके साथ बैठुगी पढ़ते समय . चिंता मग्न माँ शाम ढलते ही लालटेन जला बेटा करण आवाज़ लगाई ,आवाज़ मे खनक ऐसी मानो माँ ने बेटे की जिंदगी का लालटेन जला दिया हो . करण बस्ता लिए हाज़िर हुआ ,पालथी लगाकर बैठा ही था कि माँ का बैचैन मन कुछ कहना शुरू किया "रे बेटा सुनने मे आया है कि तेरा पढ़ना लिखना साढे बाईस हो गया है . एक ही बेटा है बपवा मारके फेंक देगा ." करण अंग्रेजी की पुस्तक बस्ता से निकालते हुए अपनी अनपढ़ माँ को बताया देखो माँ अभी तुम्हे बताते है की तेरा बेटा अंग्रेजी मे कितना तेज है जबकि गाँव मे लोगों को हिन्दी और संस्कृत पढ़ने मे पसीना आ जाता है . करण पूरी रफ़्तार मे लगा इंग्लिश पढ़ने " महात्मा गाँधी वाज फोर फुटेद डोमेस्टिक एनीमल एंड दिस मैन डिस टीस, टीस .बिफोर द टेबुल न्यूज़ पेपर इस देयर .एंड कस्तूरबा इज अ लेडी इन फीवर . अल द मेन एंड वूमेन दिस्लिके जनरल नोलेज . बट नोट नोलेज विदाउट कॉलेज . कुश्चन एंड अन्सर फुल ऑफ़ बक्टेरिया , ब्रदर & सिस्टर गो इन स्कूल . साईंस इस हार्ड बट हार्ट इज फ़ेल ऑफ़ . रूम इस लाइट बट नोट सन लाइट . माय मदर सिट टू मी एंड फाठेर इन शॉप जस्ट लायिक अ मोंकी . एंड मानी चाइल्ड कराई ,बिपिंग, प्लायिंग एंड रुन्निंग .इदी फा सफा नफा एंड तिब्रिश .ब्रितिस , एंड इंदिरा गाँधी इस अल्सो सफाचट. "
करण का तीर निशाने पर था . करण से ज्यादा खुश उसकी माँ थी हवा से तेज गति मे बेटे को इंग्लिश पढता देख माँ पूर्ण संतुष्टि मे बोल गई " हां रे बेटा ऐसे ही पढ़ना नही तो बापवा काटिए के रख देगा . अभी लेके आते हैं लेमनचुस ". करण अपनी जीत पर बिखरे होठ को खैनी से सम्मानित करना उचित समझा . अंततः सेठ हीरालाल का बेटा तीसरे साल मे व्यापक पैमाने पर नक़ल की व्यवस्था के तहत मैट्रिक कर ही गया .जवाहर लाल तो नही बेटा आज केवल हीरालाल है . विरासत की दूकान सम्भाल रहा है.

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

दो रुपये की शिक्षा !

मैट्रिक करके कॉलेज मे दाखिला ले किसी छुट्टी का आनंद ले रहा था अपने गाँव . बात सन् १९७९ की ही है .तब मेरे भइया हिन्दी ऑनर्स मे नामांकित हो गए थे . मैं नही जानने वाले मुझे भइया का भरत कहा करते है .वो भी शायद इसलिए कि मैं उनकी किसी बात को काट-पीट नही कर पाता था .आदर और डर का घोल पान करने से भरत कहाया करता था . साहित्य और सिनेमा प्रेम भइया के स्वभाव को और खर्चीला बना दिया था .इसका आभास उन्हें एक नम्बरी आय वाले वेतनभोगी कर्मचारी की तरह हर महीने कि १५ या बीस तारीख को ही होता था . ऐसे मे मात्र अठारह रुपये की कॉलेज फी, को फ्री कराने की सोच भइया के दिमाग मे १५-२० के बीच ही उपजी होगी . आदेश मिला "आय प्रमाण पत्र बी.डी.ओ. से बनवाकर तुरंत लेकर आ जाओ . बाबूजी का भार कुछ कम हो अब ये जरूरी हो गया है ". विदित हो तब बालकनी का टिकट मात्र चार रुपये दस पैसे ही हुआ करता था . ऐसे मे अपने लिए अतिरिक्त चार शो की व्यवस्था के तहत फूल फ्रीशिप के लिए आवेदन था न की बाबूजी की जेब पर दया की उपज .मुझे भी अनुभव प्राप्त करना था . सरकारी दफ्तर मे काम करवा जाने का पहला पहला अवसर गुदगुदाए जा रहा था सो मैंने अपनी नई नवेली साईकिल से नौ किलोमीटर दुरी तय कर अपने प्रखंड के प्रखंड विकास पदाधिकारी के कार्यालय मे पहुँचा . गेट पर चपरासी रोक दिया कारण सही था साहेब के साथ कोई और बैठा था .बैठक लम्बी चली .अपना काम आनन फानन मे हो जाए आतुरता अपनी चरम पर थी . परदा हटा के दो -तीन बार मे आई कामिंग सर बोल कर साहेब को उबा चूका था .परिणामतः मेरे आतुरता के ऊपर बैठक भोजनावकाश तक चलायी गई .
प्रखंड के आहाते मे ही साहेब का आवास था .मैं आवास तक पीछा करते हुए असफल रहा .साहेब खाना खाकर विस्तर पर पसरे ये ख़बर उनकी धरम पत्नी जी ने दी मैंने मौका गवाना उचित नही समझा तुरंत गृह मंत्रालय मे गुहार लगा दी ,दोनों हाथ स्वतः जुड़ गए .ऑफिस मे ही इन्तेजार करने का निर्देश मिला .पीछे मुड़-मुड़ कर देखते हुए आगे बढ़ता रहा .न जाने क्यों विश्वास था की आवाज़ देकर या फ़िर इशारे से हमे बुलाया जाएगा .विश्वास को क्या है ये तो मरुस्थल मे भी उग जाता है . बहुत तरह के भाव चहरे और मन को बारी-बारी से कब्जाये जा रहे थे . मैं भी कुछ खा पी कर नए सिरे से काम निकालने की जुगाड़ मे पूर्व मे सुने सुनाये किस्से याद करने मे लग गया . चाचा लोग कहा करते थे "अरे सरकारी दफ्तर मे काम करना हो तो कंजूसी नही करना चाहिए दो रूपया दो काम निकालो अपना" .ऑफिस के दूसरे सत्र मे मैं अपनी कंजूसी को तिलांजलि देने को तैयार था दो रुपये की नोट को मुठ्ठी मे दबाये पुनः दरवार मे हाज़िर था . बाहर स्टूल पर बैठा चपरासी कुछ राशि चपत करने की गरज से हमे काम करवा देने का पक्का आश्वाशन दिए जा रहा था .मैं चुपचाप प्रतीक्षारत खड़ा रहा . साहेब आए पुनः अभिवादन करके बिना अनुमति के ही उनके टेबल पर अपना लिखित आवेदन रखा जो वास्तविक आय के ग़लत ग्राफ से ग्रस्त था . क्योंकि बिना ग़लत किए हम लाभ की प्राप्ति कर लें ऐसा कम ही अवसर होता है .सरसरी निगाह के बाद उनका "ये नही हो सकता ." वाक्य मुझे हिला कर रख दिया . अनुनय विनय के जो भी शब्द मेरे विनय पत्रिका मे थे परोसता रहा . असफल रहा . अंत मे मैंने ब्रम्हास्त्र फेंका जो तब से मेरी मुठ्ठी मे दबी पड़ी थी . मैंने सहज भाव से दो रुपये का नोट समर्पण करते हुए कहा सर इसे रखिये और मेरा काम ...रे बलैया ! साहेब तो ऐसे उछले जैसे दो नंबर के पैसा को कभी हाथ लगाया ही न हो बोला " सीधे गेट आउट " आउट ! पुलिस बुलाओ ! बंद करो ! " साहेब को और नोट का लोभ देने की पेशकश करता इससे पहले दो किरानी और दो चपरासी मझे गिरफ्त मे ले चुका था . दोनों साइड से दो दो हाथ मेरे दोनों हाथ को काबू मे किए हुए बाहर लाया कारण दो रुपये का नोट . क्या हुआ जो साहेब भड़क गए सबका एक ही सवाल था जबाब मैंने सही सही बता दिया .सबने कहा बहुत बड़ी गलती कर गए अब सजा मिलेगी . किसी ने माफ़ी मांग कर निकल लेने की सलाह दी . मुझे मुझमे गलती दिख ही नही रही थी .लो दो का सिधांत तो हर सरकारी दफ्तर मे मान्य है ऐसा समझा गया था .


कुछ देर बाद साहेब के निदेश पर साहेब के समक्ष उपस्थित हुआ .बदले से सरकार नज़र आए . आत्मीयता से बैठाया ,घर परिवार, शिक्षा -दीक्षा के बारे मे पूछते गए . अंत मे दो रुपये की कथा जानना चाहा , बताया दिया सही सही . जोर से हसते हुए कहा तुम पहली बार किसी सरकारी दफ्तर मे काम ले कर आए हो ? मैंने हाँ मे सिर हिलाया .मुझे जिस प्रमाण -पत्र की जरूरत थी वो उनके हस्ताक्षर का श्रृंगार कर चमक रही थी . साहेब ने दो रुपये की जो शिक्षा मुझे दी उसका उपयोग सरकारी दफ्तर से काम निकालने के लिए प्रयार्प्त साबित हो रहा है . वो दो रुपये लौटा कर , दो या दो सौ रुपये देने का सम्माननीय तरीका बता गए . वापस घर पहुचकर खुश होते हुए सबको बताया तो जबाब मिला बच गए मूर्ख .थेओरी और प्रैक्टिकल मे काफ़ी अन्तर होता है .