गुरुवार, 17 जुलाई 2008

माँ और भूख !

दालान पर , कल्ह कादिरी मियाँ से संक्षिप्त मुलाकात का नतीजा है कई शेर अपनी यादों के जंगल से छोड़ गए मियाँ . इन दो के अतिरिक्त सब मेरे शिकार बने .और मैं इनका शिकार हुआ .दम है क्या इनमे ?


"एक निवाले के लिए मार दिया जिसको हमने ,

वो परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला / "

" पत्थर उबालती रही एक माँ तमाम रात ,

बच्चे फरेब खाकर ,फर्श पे सो गए /

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

अच्छा लगता हूँ !

{शब्द ज़माने का .वाक्य बन गया मेरे से . सो सर्वाधिकार सुरक्षित कैसे हो ? इन बने -बिगडे वाक्य को कविता, गीत ,गजल,या छंद क्या कहा जाय ,मालूम नही . बस अच्छा लगता हूँ }
आजकल सोचते हुए अच्छा लगता हूँ।
ख़ुद को कोसते हुए अच्छा लगता हूँ ।

दर्द जो सीने से उठकर, चेहरे पर गिरती है।
वापस,दिल में खोंसते हुए अच्छा लगता हूँ ।

रखके उनके लबों पर उनके हिस्से का मुस्कान,
अब अपनी आंसू पोछते हुए अच्छा लगता हूँ।

जो ख़त्म न हो इन्तजार उसका शौक पाला है ।
गुजरे लम्हों की बाट जोहते अच्छा लगता हूँ ।

व्यस्क हो चले ज़ख्मी दिल का खुराक भी बढ़ा है।
रोज लजीज दिलासे परोसते हुए अच्छा लगता हूँ ।