गुरुवार, 17 जुलाई 2008

माँ और भूख !

दालान पर , कल्ह कादिरी मियाँ से संक्षिप्त मुलाकात का नतीजा है कई शेर अपनी यादों के जंगल से छोड़ गए मियाँ . इन दो के अतिरिक्त सब मेरे शिकार बने .और मैं इनका शिकार हुआ .दम है क्या इनमे ?


"एक निवाले के लिए मार दिया जिसको हमने ,

वो परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला / "

" पत्थर उबालती रही एक माँ तमाम रात ,

बच्चे फरेब खाकर ,फर्श पे सो गए /

5 टिप्‍पणियां:

डा ’मणि ने कहा…

"एक निवाले के लिए मार दिया जिसको हमने ,
वो परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला / "

वाह , बहुत वजनी और दमदार शेर है संजय भाई ,
मुझे भी इस से एक बड़ा अच्छा सा मुक्तक याद आ गया देखिए

" भूख के एहसास को शेरो - सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसी के अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवे से वाकिफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो "
संजय जी आपसे परिचय होना अच्छा रहा
समय मिले तो कभी मेरे ब्लॉब पे भी कृपा दृष्टि करें
डॉ.उदय 'मणि'कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

shabdon ki takat ka ahsaas kara diya janaab

Smart Indian ने कहा…

एक निवाले के लिए मार दिया जिसको हमने ,
वो परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला.
पत्थर उबालती रही एक माँ तमाम रात ,
बच्चे फरेब खाकर ,फर्श पे सो गए.


मैं तो अहसानमंद हूँ कादिरी मियाँ का जिनकी बदौलत हमें भी इतनी नायाब कविता सुनने को मिली.

L.Goswami ने कहा…

kitani sachi baat hai.in char laino me..sundar sher ka dhnyawad

बेनामी ने कहा…

वाई भाई वाह। बहुत खूब।

मुझे भी एक पंक्ति याद आ रही है -

सताए भूख तो इमान डगमगाता है
भरा हो पेट तो संसार जगमगाता है