सन् १९८४ मे मेरे मन की बात कागज़ पर उतर आई थी ।आज अचानक, न जाने क्यों ब्लॉग पर उतरने को बेताब दिखी । पर मैंने इसे ब्लॉग पर उतारा नही, चढाया है ।
कुछ तार मेरे मन के उलझे हुए है /
कुछ सार इस बात के सुलझे हुए हैं //
रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
कुछ तार मेरे मन के ........
।दुखाया है बड़ी बेरहमी से तेरा दिल /
एहसास इस बात के अब मुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........
किस कदर दूं उस जख्म पे मरहम /
जो जख्म मेरे घात के तुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........
4 टिप्पणियां:
आप इतना बढिया कविता लिखे है. अब तक हम लोग आपके बहुमूल्य प्रतिभा से वचिंत रहे है. लेकिन अब नहीं. बहुत सुन्दर. पढ कर दिल खुश हो गया. आप के अन्दर का कलाकार धीरे धीरे बाहर आ रहा है.
भई,
यह तो गलत बात है, जब इतना अच्छा लिखते हो
तो जरा नियमित हो जाओ । हफ़्ते में एक पोस्ट तो चढ़ा ही सकते हो !
कुछ तार मेरे मन के उलझे हुए है /
कुछ सार इस बात के सुलझे हुए हैं
bahut badiya shuruwad
रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
bhut khub. likhate rhe.
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